Tuesday, 7 May 2013

उत्तराखंड में इको-सेंसिटिव जोन का जिन्न फिर बोतल से बाहर आ गया है.इस जिन्न के बोतल से बाहर आने से उत्तराखंड में एक राजनीतिक प्रहसन पैदा हो गया,जिसमें मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और उनका समूचा प्रशासनिक अमला खिसियाहट भरी मुद्रा में नजर आ रहा है.बीते दिनों समाचार पत्रों में खबर आई कि उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक लगभग सौ किलोमीटर का इलाका केंद्र सरकार द्वारा इको सेंसीटिव जोन घोषित कर दिया गया है.मुख्यमंत्री,मुख्य सचिव,वन सचिव सभी ने इस निर्णय पर अनिभिज्ञता जताई.लेकिन अगले ही दिन यह खुलासा हुआ कि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक इको सेंसीटिव जोन घोषित करने का फैसला तो केन्द्र सरकार बीते वर्ष ही ले चुकी है और 18 दिसंबर 2012 को इसका गजट भी भारत सरकार द्वारा प्रकाशित कर दिया गया है.हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय की वकील मुख्यमंत्री के राज में यह आलम है कि राज्य से जुड़े एक बेहद संवेदनशील मसले पर भारत सरकार ने राजाज्ञा जारी कर दी,पर मुख्यमंत्री और उनके प्रशासनिक मातहतों को कानों-कान खबर तक नहीं हुई.यह हालत तब है जबकि केंद्र और राज्य दोनों ही जगह कांग्रेस की सरकार है और मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उत्तराखंड से ज्यादा दिल्ली में केन्द्रीय मंत्रियों को फूलों का गुलदस्ता भेंट करते हुए, फोटो खिंचवाते अक्सरहां देखे जा सकते हैं.
कल(06 मई 2013 को) भी दिल्ली पहुंचे मुख्यमंत्री एंड कंपनी की प्रधानमन्त्री से मुलाक़ात का जो ब्यौरा अखबारों में छपा है,उससे तो यही समझ में आता है कि इस मामले को लेकर वे अभी भी गंभीर नहीं हैं.मुख्यमंत्री और उनके कारकुनों ने प्रधानमन्त्री के पास जाने से पहले ना तो इको -सेंसिटिव जोन को लेकर केंद्र के दिशा-निर्देश पढ़े और ना ही उत्तरकाशी-गंगोत्री इको सेंसिटिव जोन का गजट ही उन्होंने पढ़ने की जहमत सरकार बहादुर ने उठाई.यदि उन्होंने ये पढ़े होते तो कमेटी बनाने की बात वे ना कहते,क्यूंकि इको- सेंसिटिव जोन के लिए जो आंचलिक महायोजना बननी है,उसे वन,शहरी विकास,पर्यटन ,नगरपालिका,राजस्व,लोकनिर्माण,ग्रामीण विकास,पंचायती राज,जलसंसाधन,बागवानी,राज्य प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड आदि विभागों की भागीदारी से ही बनाया जाना है.रक्षा और पर्यटकों को होने वाले कष्टों का जिक्र तो मुख्यमंत्री ने किया पर आम आदमी को इको सेंसिटिव जोन से क्या दिक्कतें होंगी ,ये मुख्यमंत्री की चिंता ही नहीं है तो वे प्रधान मंत्री के सामने क्यूँ उठाते?गंगोत्री जाने वाले पर्यटकों की चिंता करते हुए मुख्यमंत्री एंड कंपनी को शायद यह भान ही ना हुआ हो,कि गंगोत्री जाने के लिए पर्यटकों की सीमित संख्या की बाध्यता तो इको-सेंसिटिव जोन बनने से पहले से ही लागू है ! (एक चमत्कार अखबारों ने भी किया,इको-सेंसिटिव जोन पर प्रधानमन्त्री से बैठक हुई दिल्ली में पर खबर छपी है देहरादून डेटलाइन से ! सत्तापरास्ती में अखबारवालों को शायद महाभारत के संजय जैसी चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त हो गयी हैं तभी तो वे दिल्ली की बैठक का आँखों देखा हाल,देहरादून से छाप दे रहे हैं.)
उत्तराखंड पर इस इको सेंसिटिव जोन के प्रभाव की बात करने से पहले यह समझ लिया जाए कि यह जिन्न दरअसल आया,कहाँ से.21 जनवरी 2002 को भारतीय वन्य जीव बोर्ड की इक्कीसवीं बैठक में “वन्यजीव संरक्षण रणनीति-2002” गृहीत की गयी.इसी दस्तावेज के बिंदु संख्या नौ में राष्ट्रीय पार्क और वन्य जीव अभ्यारण्यों की सीमा से लगे दस किलोमीटर क्षेत्रो को पर्यावरण(संरक्षण) अधिनियम, 1986, के तहत पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र(इको फ्रेजाइल जोन) घोषित करने का प्रस्ताव पास किया गया.यह बैठक तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में हुई.इसलिए जब उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी सदा से इस इको सेंसिटिव जोन का विरोधी होने का दावा करती है तो यह सिर्फ एक राजनीतिक स्टंट ही है.हिमाचल प्रदेश,गोवा और राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने इस दस किलोमीटर की सीमा पर आपत्ति जताई.राष्ट्रीय वन्यजीव एक्शन प्लान (2002-2016) में भी इको फ्रेजाइल जोन की वकालत की गयी.इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करवाने के लिए गोवा फाउन्डेशन नामक एन.जी.ओ. उच्चतम न्यायलय चला गया. 04 दिसम्बर 2006 के अपने फैसले में उच्चतम न्यायलय ने इको सेंसिटिव जोन घोषित किये जाने पर मोहर लगा दी.2010 में ओखला पक्षी विहार के निकट नॉएडा में बन रहे पार्क के मामले में उच्चतम न्यायालय ने नोट किया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने संरक्षित क्षेत्रों के निकट इको सेंसिटिव जोन नहीं घोषित किये क्यूंकि केंद्र सरकार द्वारा इस सन्दर्भ में दिशा-निर्देश जारी नहीं किये गए थे.तत्पश्चात केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इको-सेंसिटिव जोन के मानक तय करने के लिए प्रोनब सेन की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी.देश भर में बनाये जा रहे इको-सेंसिटिव जोन इसी कमेटी द्वारा तय मानकों के अनुसार बनाये जा रहे हैं.
पूरे देश की ही तरह उत्तराखंड में भी पारिस्थितिकी और जैव विविधता को बचाने के नाम पर तमाम राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभ्यारण्यों के दस किलोमीटर के क्षेत्र को पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र यानि इको सेंसीटिव जोन बनाया जाना है.उत्तराखंड में पैंसठ प्रतिशत वन भूमि है और राष्ट्रीय पार्क और वन्यजीव अभ्यारण्यों का जाल भी लगभग पूरे राज्य में फैला हुआ.इस तरह उत्तराखंड का अधिकाँश हिस्सा इको सेंसिटिव जोन के दायरे में आएगा.इसलिए इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित होने की चर्चा होते ही विभिन्न स्थानों पर इसका विरोध शुरू हुआ.लोगों में यह आशंका घर कर गयी कि पहले ही राष्ट्रीय पार्क और वन्यजीव अभ्यारण्य उनका जीना मुश्किल किये हुए हैं और उसपर इको सेंसिटिव ज़ोन तो उनका जीना लगभग नामुमकिन कर देगा.
उत्तराखंड के निवासियों की यह आशंका निर्मूल भी नहीं है.इको-सेंसिटिव जोन के सन्दर्भ में केंद्र सरकार द्वारा घोषित दिशा-निर्देशों को देखें तो समझ में आता है कि इन इको सेंसिटिव ज़ोन के निवासियों का जीवन क्या करें और क्या ना करें की लंबी चौड़ी फेरहिस्त के मकड़ जाल में उलझ कर रह जाने वाला है.इको सेंसिटिव ज़ोन के लिए दो साल के भीतर एक आंचलिक महायोजना तैयार होनी है,जिसमें लगभग सभी सरकारी विभागों को रखा गया है.जनता की हिस्सेदारी का भरोसा दिलाते हुए कहा गया है कि “आंचलिक महायोजना स्थानीय जनता विशेषकर महिलाओं के परामर्श” से बनायी जायेगी.लेकिन अगर हमारी सरकार,गंगोत्री-उत्तरकाशी इको सेंसिटिव जोन घोषित होने के गजट नोटिफिकेशन के मामले में जैसे सोयी रही तो क्या होगा?या फिर इको सेंसिटिव ज़ोन की आंचलिक महायोजना की स्वीकृति पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से जब तक प्राप्त नहीं होगी, तब तक क्या होगा?इसका जवाब गंगोत्री-उत्तरकाशी इको-सेंसिटिव ज़ोन के राजपत्र(गजट) के बिंदु संख्या नौ में है, जो कहता है कि आंचलिक महायोजना ना बनने और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तक सारे नए निर्माण और विकास कार्यों के प्रस्ताव भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को संदर्भित किये जायेंगे.दो साल महायोजना बनने में लगेंगे और फिर उसके अनुमोदन में कितना समय लगेगा,कहा नहीं जा सकता.तो इस अवधि में आम आदमी को मकान भी बनाना होगा तो पर्यावरण एवं वन मंत्रालय कृपा होना जरुरी है.सरकारी दफतरों से जिनका पाला पड़ा है,वे भली जानते हैं कि ऐसी कृपा बरसना कितना दुष्कर कार्य होगा.जैव विवधता और हरियाली बढे ना बढे,आम आदमी के लालफीतों में बंधे रहने का मुकम्मल इंतजाम है,यह.
यदि स्थानीय जनसँख्या बढ़ जाए और उसकी आवासीय जरूरतों को पूरा करना आवश्यक हो तो,कृषि भूमि के अत्यधिक सीमित परिवर्तन के लिए भी राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए होगा और तत्पश्चात इस अनुमोदन पर केन्द्र की स्वीकृति की मोहर के बाद ही स्थानीय निवसियों की बढ़ी जनसँख्या को छत नसीब हो सकेगी.
पहले ही उत्तराखंड में सड़क निर्माण, वन अधिनियम के चलते केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में बरसों-बरस लटका रहता था,इस इको सेंसिटिव ज़ोन के बाद यह और भी दुष्कर हो जाएगा.
गंगोत्री-उत्तरकाशी इको ज़ोन के गजट को देख कर साफ़ समझ में आता है कि इको सेंसिटिव ज़ोन के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों से लेकर सड़क,झरने,पहाड़ी ढलान से लेकर पर्यटन तक के लिए नियमों का पुलिंदा तैयार किया जाएगा और सब कुछ किसी ना किसी नियम से बंधा होगा.इससे यह प्रश्न सहज ही दिमाग में उठता है कि जिन इको सेंसिटिव जोनों का घोषित उद्देश्य जैव विविधता और वन्य जीवों के निर्बाध विचरण में आने वाली बाधाओं को दूर करना है,उन इको सेंसिटिव जोनों में जब हर चीज नियमों के मकडजाल में बंधी है तो यह निर्बाधता कैसे कायम हो सकेगी?
उत्तरकाशी के गजट नोटिफिकेशन में तो राष्ट्रीय पार्क या अभयारण्य के दस किलोमीटर के दायरे को इको सेंसिटिव जोन घोषित किये जाने के नियम को ध्यान में ना रखते हुए गंगोत्री से उत्तरकाशी तक,सौ किलोमीटर के क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित कर दिया गया है.गजट में ऐसा करने के पीछे तर्क दिया गया है कि “भागीरथी नदी प्रवासी प्रजातियों सहित जलीय वनस्पति और जीव जंतुओं से समृद्ध है” तथा जलविद्युत परियोजना निर्माण से उनपर विपरीत प्रभाव पड सकता है.जल विद्युत परियोजनाओं से होने वाले पर्यावरणीय नुक्सान की वाजिब चिंता के बावजूद इको सेंसिटिव जोन बनाने वाले इस तथ्य को नजरअंदाज कर गए कि जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ आम जनता के आक्रोश का कारण तो अपने संसाधनों से महरूम किया जाना था.इस मामले में जलविद्युत परियोजनाएं और इको सेंसिटिव जोन एक ही पाले में खड़े नजर आते हैं.
कुछ बड़े अजीबो-गरीब प्रावधान भी इको-सेंसिटिव जोन के लिए जारी केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों और गंगोत्री-उत्तरकाशी इको-सेंसिटिव जोन के गजट में मौजूद है.जैसे गजट के खंड 3 के धारा(ख) में इको सेंसिटिव जोन में विनियमित यानि रेगुलेट किये जाने वाले क्रियाकलापों की सूची में चीड़ के वृक्षों का रोपण भी है.इको सेंसिटिव जोन में चीड़ रोपने पर प्रतिबन्ध लगाने के बजाय उसे विनियमित करने की बात की गयी है,जबकि चीड़ तो स्वयं जैव विविधता का बड़ा दुश्मन है.चीड़ की पत्तियों में पायिनिक एसिड होता है.जब ये नुकीली पत्तियों जमीन पर गिरती हैं तो जमीन भी अम्लीय हो जाती है.चीड अपने आसपास अन्य प्रजाति के वृक्षों को नहीं पनपने देता.जंगल की आग को फ़ैलाने में यह बेहद सहायक होता है.यह मृदा क्षरण को भी बढाता है.तब प्रश्न यह है कि पर्यावरण की बेहतरी के लिए बनने वाले इन इको सेंसिटिव जोन में चीड रोपना जरी रख कर,पर्यावरण का कौन सा हित भारत सरकार करना चाहती है?जाहिर है कि चीड के व्यावसायिक दोहन को बरक़रार रखने के लिए इस खतरनाक पेड के रोपे जाने को जारी रखने का विशेष प्रावधान किया गया है.
एक और बात जो इको सेंसिटिव ज़ोन के प्रति संदेह पैदा करती है, वो ,यह कि जैव विविधता और पर्यावरण के नाम पार आम आदमी के लिए ढेरों बाधाएं खडी करने वाले इको सेंसिटिव जोनो में होटल और रिसोर्ट बनाये जा सकेंगे.बस एक पुछल्ला यह जोड़ा गया है कि ये अनुमोदित महायोजना के अनुसार होने चाहिए और इनके द्वारा वन्य प्राणियों के विचरण में कोई बाधा नहीं पैदा की जानी चाहिए.सरल बुद्धि से भी सोचा जाए तो भी यह समझ में आता है कि होटल या रिजार्ट जैसे व्यावसायिक उपक्रम पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील बताये जा रहे इन क्षेत्रों के लिए शुभकारी तो नहीं होंगे.लेकिन क्या कारण है कि सरकार और इन इको सेंसिटिव जोनो के निर्माण के लिए उतावले पर्यावरणविदों को इन होटल-रिजॉर्टों से,पर्यावरण को कोई नुक्सान नजर नहीं आता है?
दरअसल यही इस सारे मामले को समझने की कुंजी है.जिन जंगलों और उनकी जैव-विवधता को यहाँ के निवासियों ने बिना किसी सरकारी कृपा के सैकड़ों सालों से बचाए रखा,आज एकाएक उन्हें,जंगलों के लिए खतरा करार देकर,उनका जीवन दुष्कर करने की तैयारी है.जबकि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में होटल-रिजार्ट बेखटके चलने देने में कोई परेशानी नीति -निर्माताओं को नहीं नजर आती.इसका सीधा अर्थ यह है कि लोगों को उनके जल-जंगल-जमीन से महरूम करने और इन क्षेत्रों को पूँजी के बड़े-बड़े पशुओं के बेखटके आखेट के लिए खुला छोड़ने के लिए यह इतना बड़ा अखिल भारतीय आडम्बर रचा जा रहा है,जिसकी मार उत्तराखंड पर बड़े पैमाने पर पड़ने जा रही है.
नवउदारवादी नीतियों के दौर में सरकारों ने शब्दों के अर्थों को उजले आस्तीन के भीतर छुपा कर रखे गए सांप जैसा बना दिया है. जनहित के नाम पर पेश की जाने वाली नीतियों को,सरकार शब्दों को जितना अधिक चासनी में घोल कर पेश करती है,उनके मायने उतने ही अधिक मारक और विषबुझे होते हैं.जैसे विकास का मतलब है,जमीनों से उजाडा जाना,औद्योगिकीकरण का मतलब है नारकीय कार्य स्थिति में न्यूनतम मजदूरी के साथ अधिकतम काम,उसी तरह इको सेंसिटिव जोन का मतलब है सैकड़ों सालों से वनों में रह कर ,इन्हें बचाने वाले स्थानीय लोगों की जंगलों और इन से जुडी हर चीज से बेदखली.                                                Indresh Maikhuri
                                                CPIML State committee memberhttps://www.facebook.com/indresh.maikhuri.5?hc_location=timeline
 
 

No comments:

Post a Comment